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समय का फेर / हरिऔध

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 धान विभव की बात क्या जिन के बड़े।

रज बराबर थे समझते राज को।

है तरस आता उन्हीं के लाड़िले।

हैं तरसते एक मूठी नाज को।

क्या दिनों का फेर हम इस को कहें।

या कि है दिखला रही रंगत बिपत।

थी कभी हम से नहीं जिन की चली।

आज दिन वे ही चलाते हैं चपत।

बेर, खा वे बिता रहे हैं दिन।

जो रहे धान-वु+बेर कहलाते।

अन्न से घर भरा रहा जिन का।

आज वे पेट भर नहीं पाते।

चाव से चुगते जहाँ मोती रहे।

हंस तज कर मानसर आये हुए।

पोच दुख से आज वाँ के जन पचक।

फिर रहे हैं पेट पचकाये हुए।

जो सुखों की गोदियों के लाल थे।

दिन ब दिन वे हैं दुखों से घिर रहे।

जो रहे अकड़े जगत के सामने।

आज वे हैं पेट पकड़े फिर रहे।

बाँटते जो जहान को उन को।

सुधा रही बाट बाँटने ही की।

पाटते जो समुद्र थे उन को।

है पड़ी पेट पाटने ही की।

पेट जिन से चींटियों तक का पला।

जा सके जिन के नहीं जाचक गिने।

कट रहे हैं पेट के काटे गये।

लट रहे हैं कौर वे मुँह का छिने।

दूधा पीने को उन्हें मिलता नहीं।

जो सहित परिवार पीते घी रहे।

अब किसी का पेट भर पाता नहीं।

लोग आधा पेट खा हैं जी रहे।

पेट भर अब अन्न मिलता है कहाँ।

हैं कहाँ अब डालियाँ फल से लदी।

बह रहा है सोत दुख का अब वहाँ।

थी जहाँ घी दूधा की बहती नदी।

छिन गया आज कौर मुँह का है

गाय देती न दूधा है दूहे।

है बुरा हाल भूख से मेरा।

पेट में वू+द हैं रहे चूहे।

बात बिगड़े नहीं किसी की यों।

मरतबा यों न हो किसी का काम।

पाँव मेरे जहान पड़ता था।

दुख पड़े पाँव पड़ रहे हैं हम।

आज वे हैं जान के गाहक बने।

मुँह हमारा देख जो जीते रहे।

हाथ धो वे आज पीछे हैं पड़े।

जो हमारा पाँव धो पीते रहे।

छू जिन्हें मैल दूर होता था।

आज वे हो गये बहुत मैले।

वे नहीं आज पै+लते घर में।

पाँव जो थे जहान में पै+ले।

बेतरह क्यों न दिल रहे मलता।

दुख दुखी चित्ता किस तरह हो कम।

लोटते पाँव के तले जो थे।

पाँव उनका पलोटते हैं हम।

गालियाँ हैं आज उन को मिल रहीं।

गीत जिन का देवते थे गा रहे।

पाँव जिन के प्रेम से पुजते रहे।

पाँव की वे ठोकरें हैं खा रहे।

अब वहाँ छल की, कपट की, फूट की।

नटखटी की है रही फहरा धुजा।

पापियों का पाप मन का मैल धो।

है जहाँ पर पाँव का धोअन पुजा।

आज वे पाले दुखों के हैं पड़े।

जो सदा सुख-पालने में ही पले।

सेज पर जो फूल की थे लेटते।

वे रहे हैं लेट तलवों के तले।