भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

धर्म का कमाल / हरिऔध

Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 14:04, 18 मार्च 2014 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ |अ...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

धर्म ऊँचे न जो चढ़ा पाता।
तो न ऊँचे किसी तरह चढ़ती।
जो बढ़ाता न धर्म बढ़ कर के।
तो बढ़ी जाति किस तरह बढ़ती।

क्यों बहुत देस में न हो बसती।
क्यों न हो रंग रंग की जनता।
धर्म निज रंगतें दिखा न्यारी।
है उसे एक रंग में रँगता।

है उभर कर न देस जो उभरा।
धर्म ही ने उसे उभारा है।
हार कर भी कभी नहीं हारा।
वह गिरी जाति का सहारा है।

मर रही जाति के जिलाने को।
धर्म है सैकड़ों जतन करता।
है वही जान डालता तन में।
है रगों में वही लहू भरता।

है जहाँ दुख दरिद्र का पटपर।
धर्म सुख - सोत वाँ लसाता है।
बेजड़ों की जमा जमा कर जड़।
देस उजड़ा हुआ बसाता है।

जाति जो हो गई कई टुकड़े।
धर्म हिल मिल उसे मिलाता है।
जोड़ता है अलग हुई कड़ियाँ।
वह जड़ी जीवनी पिलाता है।

खोल आँखें, हिला डुला बहला।
कर सजग काम में लगाता है।
धर्म कर सब जुगुत जगाने की।
सो गई जाति को जगाता है।

धर्म का बल मिल गये सारी बला।
जो भगाने से नहीं है भागती।
तो जगाये भाग जागेगा नहीं।
लाख होवे जाति जीती जागती।