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रुक्मिणी परिणय / आत्मप्रसंग / बबुआजी झा 'अज्ञात'

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कोसी नदिक निकट अछि बसती बाथ
जन्मभूमि, जल जीवन नियतिक हाथ।
महिसिक पीठ पढ़ल किछ चित पित मारि
कविता एखन लिखै छी खेतक आरि।

कवि समाजसँ रहलहुँ सभ दिन कात
नाम अपन हम रखलहुँ ते ‘अज्ञात’।
विकट प्रश्नमय जीवन रहलहुँ व्यस्त
शिवक जटामे सुरसरि सम हम अस्त।

विधिवश प्राप्त वसन्तक किरण अमन्द
गाबि उठल पिक हृदय अभिमत छन्द।
कोन वस्तु अछि जगतक नहि निङहेस
एक चमत्कृत चित्रण कवि-कर शेष।

चलत घरणितल तटिनिक जखन प्रवाह
आबि जुड़त किछ नीको किछ अधलाह।
जखन विरंचिक विरचित सृष्टि सदोष
हैत कोन विधि अनकर कृति निर्दोष।

सहज धर्म मधुमाछिक मधु लय अन्ध
माछिक अपन प्रकृति पुनि प्रिय दुर्गन्ध।
एक कहथि भल जकरा अनभल आन
मनक आँखि नहि सबहुक एक समान।

सर्वसुगम नहि हंसक घर अछि आइ
मुह दुसैत मुहुदुस्सिक ध्वज उड़िआइ।
वन्य प्रसूनक की अछि विफल सुगन्ध?
व्यापक विभु यदुपूजा यदि मन बन्ध।

जानि न जानि कते कविवर्यक अर्थ
कृतिगत हैत, ऋणी हम तनिक तदर्थ।
कयलहुँ सक भरि सेवा अम्ब! अहाँक
अहिक दया पर आगुक कर्म विपाक।

-अज्ञात