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ढोल / जयप्रकाश कर्दम

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मैं हूं ढोल
चमड़े से मढा काठ का खोल
जन्म, शादी, मनादी
घर, दंगल, जंगल
होली हुड़दंग, मंगल
बजाया जाता हूं मैं
मनोरंजन और खुशी के हर मौके पर
अंगुलियों की थिरकन,
हथेली की थाप
या डंडी की चोट से
कभी धीमा, कभी तेज
हर थाप हर चोट पर
मैं दर्द से कराहता हूं
बिलबिलाता हूं
मुझ पर पड़ने वाली प्रत्येक चोट
बनाती है जख्म मेरे जिस्म पर
जितनी तगड़ी चोट
उतना गहरा जख्म
उतनी ऊंची चीख
आनन्दित होते हैं वे जिस पर
नाचते गाते हैं, तालियां बजाते हैं
नाच गाने और तालियों के शोर में
दबकर रह जाता है मेरा दर्द
ध्वनित होती है चीख
सुनाई पड़ती है जो
संगीत के रूप में।