भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

कितना प्यार करूँ / जयप्रकाश कर्दम

Kavita Kosh से
Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 20:38, 20 मार्च 2014 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=जयप्रकाश कर्दम |अनुवादक= |संग्रह= }...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

आज तलक यादों के फेरे कभी हुए ना बैरी मेरे
डूब चला यौवन का सूरज कब तक इंतजार करूं मैं।

कितनी बार सजाए वंदन कितनी बार भुलाए बंधन
तेरे आने की आहट सी होती कितनी बार चिरंतन
संदेशा तेरा ले-लेकर आती है जब-जब पुरवाई
उमड़ पड़े अखियों का सागर कैसे प्रतिकार करूं मैं।

रोज चिड़ाए मुझको दर्पण रोज सताएं बैरी कंगन
बाट जोहते अखियां सूजीं भई श्याम अब काया कुंदन
ठट्ठा कर-कर सखि-सहेली तृष्णा रोज जगा देती हैं
कैसे बीते दिन बरसों के क्या भूलूं क्या याद करूं मैं।

आशाओं के दीप जलाए अरमानों की सेज सजाए
कल आओगे, कल आओगे मन में यह विश्वास जगाए
अंतर की पीड़ा को अब तक अधरों ने दुत्कार दिया है
ओ निष्ठुर परदेशी बतला कितना तुझको प्यार करूं मैं।