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खिड़कियाँ / महेश वर्मा


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ये खिड़कियाँ ही हैं जो
आखिरी तक हमारे सुधार की
कोशिश कर रही हैं।
कितना भी इन्हें बंद रखा जाए
ये दीवार न होंगी।
थोड़ी मशक्कत से खुल जाएँगी
धूप और हवा और धूल की शोर की ओर।
विस्मृति के विरुद्ध हमारी लड़ाई
ये ही लड़ रहीं हैं।
ये चाहती हैं हमें याद रहें
सुबह और शाम के रंग,
साइकिल चलाते और बीड़ी पीते लोग।
हमारा बाहर इन्हीं के फेफड़ों से गुज़रकर
हमारी साँस में पैवस्त होता आया है।
बारिश जब इनसे ज्यादा लाड़ दिखाने लगती है
तो ये उसको डाँट भी देती है।