भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
अमृत / मन्त्रेश्वर झा
Kavita Kosh से
Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 12:49, 24 मार्च 2014 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=मन्त्रेश्वर झा |अनुवादक= |संग्रह=...' के साथ नया पन्ना बनाया)
बिना किछु बुझने सुझने
बिना जोड़ने कानो लाभ हानिक हिसाब-किताब
जे ओ ककरा लेल जरैत अछि
कतय जरैत अछि
पूजाघर मे, मुर्दघट्टी मे, कि मदिरालय मे
जरैत रहैत अछि धूपबत्ती।
अनवरत पसारैत अपन सुगन्धि
अन्त काल तक होइत रहैत अछि शेष
जेना केहनो गन्हाइत काल कोठरी
मे पहुँचैत रहैत अछि प्रकाश
आ निकलैत रहैछ बेदाग
अमर हेबाक लेल आवश्यक नहि
छैक छोड़ब कोनो पद चिह्न
बनायब कोनो स्मारक
अमर हेबाक लेल आवश्यक छैक मात्र मरब
आ मरैत-मरैत पसारैत रहब सुगन्धि
बनबैत रहब, लुटबैत रहब प्रकाश।