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हँ, हम मानैत छी / मन्त्रेश्वर झा

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हँ, हम मानैत छी जे हम रचनाकार नहि छी,
कवि नहि छी
”रचनाकार रचना करैत अछि, किछु रचैत अछि,
किछु गढ़ैत अछि, किछु सर्जन करैत अछि“
अहीं तऽ कहने रही।
हँ, हम मानैत छी जे हम नहि छी रचनाकार
सर्जन करबा मे, छी पूर्ण असमर्थ, अक्षम।
हम एहि समाजक विघटनक
कुत्सित विध्वंसक मात्र एक बहीर
आ आन्हर दर्शक टा छी
केवल तमाशबीन जकाँ देखि रहल छी
जे कोना कोनो स्वयंभू कृष्ण
सेंक्टम सेंक्टोरियम सँ
उखाड़ल कोनो अजनबी राम
आ कि दुर्गति पसारिनिहारि कोनो जया
कोनो ललिता, कोनो दुर्गा कऽ रहल
छथि उद्दण्ड तांडव।
हँ हमर मीत। हम सार्थक नहि छी।
छी मात्र चारू कात भ्रष्ट इंटेलेक्चुअलिष्ट
भीड़ मे मात्र अल्प बुद्धिजीवी
अपन बुद्धिक दावीमे रहैत छी चूर।
आन सभ किछु ले मजबूर।
‘हँ, हम मानैत छी मीत जे हम रचनाकार नहि छी।
ने द्रष्टा छी ने स्रष्टा। बनि गेल छी अहाँक शक्तिक लेल।
ओकरे कृपा सँ नचैत एकटा पुतरी। नहि मीत।
हम नहि देखि पबैत छी। अपन मिथ्या रचना सरकार मे।
दूर बहुत दूर तक साल दर साल तक टनेल के पार तक।
कनियो टा इजोतक केहनो टुकड़ी।
तखन कोना के करू हम हम अपन रचनाधर्मिताक पालन।
आ भविष्यक प्रति ककरो लेल कनियो आशाक संचार।
हँ हमर मीत। मर्यादा पुरुषोत्तम राम
आब हमरा हृदयमे नहि छथि।
तेँ ताकि रहल छी हुनका
डिबिया लय मन्दिर-मन्दिर।
जेना कुरानक आयत ताकि रहल छथि
सौंसे संसार मे पसरल कोनो दोसर अवतारक संतान।
भोगैत जाली कारी नोटक शासन।
मर्डर आ मनीक अनुशासन।
जखन, बचले नहि अछि कोनो विचारक धर्म।
तखन कथीक हैत ग्लानि।
तदात्मानम् सृजाम्यहम् के हैत कोना।
कोनो प्रकार ककरो आनि।
आब लोक मरलो पर जीवित रहैत अछि।
बचल खुचल जीवन पर करैत प्रहार।
जीवितो लोक मरल रहैत अछि। गरल रहैत अछि।
पस्त रहैत अछि। आब लगैए जेना सूर्य उगलो पर अस्त रहैत अछि।
हँ, हम मानैत छी हमर मीत। अहाँ कहने रही ठीके।
जे हम कवि नहि छी। आ ने छी रचनाकार, केवल नकलची छी
अनेरे किदन-किदन लिखैत छी।
मुदा मीत!
जे क्यो तथाकथित बुद्धिजीवी छी।
समर्थ छी। से सभ व्यर्थ छी।
सरासर व्यर्थ छी। सभ अनर्थ छी।
सरफरोशीक तमन्ना आब नहि बचल कतहु शेष।
आब भविष्यक गर्तमे ताकल जायत
हमर आ अहाँक केवल कुत्सित अवशेष।
‘बुड़िबकहा खेती अगिला साल’
कहनिहार बचल छथि केवल गद्दी पकड़ नेता।
तखन कथी पर दिया सकब अगिला सालक भरोस हमर अध्येता।
जतय जतय बचल अछि कोनो ने कोनो गाछ।
ताहि पर चढ़ि जे ओकरे काटि रहल छथि।
सैह सभ छथि युग निर्माता। आजुक कालिदास।
भरि भरि गाम के डराय जराय तृप्त भए रहल छथि।
परम अद्भुत आजुक समाजसेवी संतोषी दास।
तखन अहीं कहू मीत!
जे हम कोना करब कविता। कथीक लिखब आख्यान।
की करब रचना। जय श्री रामक पाठ हो वा चंडी पाठ।
सुग्गा जकाँ रटैत रहि गेलहुँ केवल
कहाँ बुझि सकलहुँ जे।
राम बनबाक लेल भोगय पड़ैत छैक बनवास।
सहय पड़ैत छैक ‘पत्नीक’ अपहरण।
दुर्गा बनबाक लेल करय पड़ैत छैक शक्ति संचय।
केहन केहन दैत्यक संहार। पीबय पड़ैत छैक रक्त बीजक शोणित।
से सभ कनियो ने बुझि सकलहुँ। केवल गनैत रहि गेलहुँ।
अपन अपन स्वार्थ, जोड़ैत घटबैत रहि गेलहुँ अपन अपन भावार्थ।
अलग बलग खाउँ, पतलोइया लग ने जाऊँ
सैह जीवन भऽ गेल अछि संस्कृतिक मूल आधार।
तखन बिलकुल बेकार छथि सभटा
रचनाकार। सभ रचना बनि जाइत अछि केवल अपन आत्म प्रचार।
हँ, मानैत छी मीत, हँ, हम मानैत छी। मानैत छी बारंबार।
जे हम कवि नहिं छी। आ ने छी रचनाकार।
हँ, हम मानैत छी मीत हम मानैत छी।