भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
अन्तर की रस-धारा की हो / हनुमानप्रसाद पोद्दार
Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 14:15, 24 मार्च 2014 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=हनुमानप्रसाद पोद्दार |अनुवादक= |स...' के साथ नया पन्ना बनाया)
अन्तर की रस-धारा की हो मेरी तुम्हीं मूर्ति प्रत्यक्ष।
स्मृति की क्या चर्चा, जब हो तुम जीवन-रस, जीवन का लक्ष्य?
जहाँ वचन हैं पहुँच न पाते, जहाँ न खिंच पाता है चित्र।
मुझमें वही स्थान हो तुम ही, नित अनुभव की वस्तु विचित्र॥
कैसे कोई कहे किसी से, इस स्थिति की कैसी क्या बात।
रसलीला-सागर मधुमय में, होता दिव्य रास दिन-रात॥
अपने अंदर तुम्हीं देख लो, कहीं न कभी अन्य अस्तित्व।
यही हमारे दिव्य नित्य-जीवन की लीला का है चित्र॥