भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
एक तुम्हीं में मन अटका है / हनुमानप्रसाद पोद्दार
Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 14:18, 24 मार्च 2014 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=हनुमानप्रसाद पोद्दार |अनुवादक= |स...' के साथ नया पन्ना बनाया)
एक तुम्हीं में मन अटका है, एक तुम्हारी ही है याद।
ललचाता रहता पाने को नव-नव नित्य मधुर-रस-स्वाद॥
प्राण-इन्द्रियाँ बुद्धि-चिंता-सब तुममें ही संतत संलग्र।
अतल अथाह प्रेम-रस-सागरमें ही हूँ मैं नित्य निमग्र॥
मिलती परम प्रेरणा तुमसे, मिलता अमित शक्तिका दान।
बना हुआ हूँ जिसको पाकर मैं नित अतुलित शक्ति-निधान॥
जीवन-मूल तुम्हीं हो, केवल तुम्हें देखता हूँ नित पास।
मधुर मनोहर तुममें ही, बस, रहता मेरा नित्य निवास॥