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पल भर नहीं छोड़ते बनता / हनुमानप्रसाद पोद्दार

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पल भर नहीं छोड़ते बनता मुझसे प्रिये! तुम्हारा संग।
देख-देख नव-नव ललचाता मैं सागर-रस-सुधा-तरंग॥
नित्य चाहता मन मेरा करना अविरत अवगाहन-पान।
तनिक सह नहीं सकता मैं तुमसे पलभरका भी व्यवधान॥
भरता नहीं कभी मन मेरा, बढ़ती ही रहती नित चाह।
नहीं देखता द्वन्द्व एक भी, करता नहीं कभी परवाह॥
तुमसे घुला-मिला रहता मैं हर हालत में हूँ दिन-रैन।
अमिलन का कल्पना-लेश भी कर देता मुझको बेचैन॥
रहो कहीं तुम, कभी किसी भी स्थितिमें, कैसे भी प्यारी।
सदा रहूँगा मिला साथ मैं, हो न सकोगी तुम न्यारी॥