भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
तेरे उर की शुचि सुन्दरता / हनुमानप्रसाद पोद्दार
Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 14:28, 24 मार्च 2014 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=हनुमानप्रसाद पोद्दार |अनुवादक= |स...' के साथ नया पन्ना बनाया)
तेरे उर की शुचि सुन्दरता, पावन वह माधुर्य महान।
तेरा शोभा-शील-भरा वह सरल हृदय सदगुणकी खान॥
तेरी अनुपम वह अनन्यता, तेरा वह पवित्रतम त्याग।
तेरा वह सपूर्ण समर्पण, आत्मनिवेदन, शुचितम राग॥
तेरा वह संकोच सुधामय, तेरा वह आदर्श सु-भाव।
तेरी अमर्याद मर्यादा, गोपनीय उत्सुकता, चाव॥
सभी पवित्र, सभी सुषमामय, सहज दिव्य आचार-विचार।
उज्ज्वल, त्यागपूर्ण, प्रेमामृत-पूरित, परमानन्दाधार॥
कभी विस्मरण हो न पा रहा, बनी विलक्षण स्मरणसक्ति।
तेरे पद-कमलों में मेरी बढ़ती रहे सदा अनुरक्ति॥