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वाह रे मनुक्ख / मन्त्रेश्वर झा

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कखनो के मोन औना जाइत अछि
भोथिया जाइत अछि हमर मोन
जेना भोथिआइत अछि
पुरबा कि पछवा,
कोशी धार जकाँ टूटि जाइत अछि संयम
नियम आ बन्धन सभटा
भऽ जाइत अछि छहोछीत
गरजैत मेघ जकाँ भऽ जाइत अछि
दृष्टि कारी,
हमर अपन स्वयं भए जाइत अछि
हमरा पर भारी,
एना किएक होइत अछि
सृष्टिक आन कतोक जीवजन्तु जकाँ
निर्वाध स्वतंत्र आ निश्छल किएक ने
रहैत अछि मनुक्ख नामक प्राणी
अखंड आकाश मे उड़ैत
कलरव करैत, अनवरत
नचैत, गबैत
प्रकृतिक उपवन के अपने जकाँ
सुन्दर सहज सरस बनबैत
ने कोनो आवरण
ने कोनो वस्त्र,
ने कोनो संग्रह, ने अस्त्र शस्त्र
वाह रे पंछी परबा कि मैना
बगरा कि कोयली
ने कोनो धर्म, ने कोनो जाति
सदिखन आनन्द, निर्भय निश्शंक
उड़बे ओकर कला, नृत्ये विज्ञान
जीवन मृत्यु स्वर्ग तुल्य
स्तः निरभिमान
खसैत पड़ैत रहैत अछि
अनेरो उधियाइत,
मोथिआइत भसिआइत
वाह रे मनुक्ख।