रहता पुरी द्वारिका में मैं, करता हूँ सबका शासन।
सभी सदा अनुगत रह मेरा सतत मानते अनुशासन॥
विविध प्रचुर ऐश्वर्योंसे युत सुन्दर भव्य राज-प्रासाद।
रमणी-रत्न सहस्रोंसे जगमग, उपजाते अति आह्लाद॥
तन-मनसे सेवा-रत विनय-विभूषित, गलित-गर्व सारी।
एक-एकसे बढक़र शुभ गुण-रूपवती निर्मल नारी॥
राज-काज करता सब अनलस, शत्रु-मित्रसे सदा सचेत।
राष्टस्न्र-नीतिकी रक्षा करता, सदा सतर्क, धर्म-समवेत॥
ये सब, और अनेकों अति दायित्वपूर्ण सब करता काम।
पर क्षणभर भी नहीं भूल सकता मैं तव मुख-चन्द्र ललाम॥
स्वप्न-राज्यमें भी, प्यारी! मैं पाता सदा तुम्हारा सन्ग।
दर्शन-मिलन-विलास विविध होते, बढ़ता नूतन रस-रन्ग॥
बहता नित्य प्रवाह तुम्हारी मधुर रूप-सरिका निर्बाध।
पल-पल बढ़ती रूप-माधुरी, पल-पल नयी-नयी मन साध॥
दूर रहो या पास रहो तुम, हम दोनों का रस-संयोग।
अटल, अचल, अतुलित, अनुभवमय रहता, होता नहीं वियोग॥
सदा नाचती रहती प्रिय छवि, प्रिये! तुम्हारी मधुर अशेष।
पल-पल नव उल्लास उपजता, पल-पल रस-आस्वाद विशेष॥
नहीं देहमें सीमित यह अति पावन दिव्य प्रेम-सबन्ध।
जन्म-मरण, परलोक-लोकका भी न कभी होता प्रतिबन्ध॥
नित अक्षुण्ण, नित्य वर्धनमय, नित्य प्रेम-रस मधुर अपार।
रहता सदा सुधा शुचि चिन्मय का सीमा-विरहित विस्तार॥