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तुम यह शायद समझ रही / हनुमानप्रसाद पोद्दार

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तुम यह शायद समझ रही, मैं करता तुम्हें नहीं हूँ याद।
पर मेरे मन कैसा अति छाया रहता नित विषम विषाद॥
किसे बताऊँ मैं मनकी स्थिति, किससे करूँ, प्रिये! फरियाद।
किसे सुनाऊँ हृदय-दाहका भीषण ज्वालामय संवाद॥
जलता हृदय वियोगानलसे, झूर रहे दृग दर्शन-हेतु।
चाह रहा मिलना अति सत्वर, तोड़ सभी मर्यादा-सेतु॥
कैसे देखूँ तुम्हें इसी क्षण, बीत रहा युग-तुल्य निमेष।
छूट रहा सब धैर्य, बचा कुछ नहीं हृदयमें धृतिका शेष॥
बसा दूर मैं पुरी द्वारिका, घेरे रहते अगणित लोग।
विविध विचित्र विषय मनहारी, लोकदृष्टिस्न्के सुखकर भोग॥
कहीं नहीं लगता मन मेरा, रहा तुम्हारी स्मृतिमें डूब।
लगते सब सुख-भोग परम दुखरूप, गया इनसे मन ऊब॥
यों तो सदा तुम्हारा मुझसे रहता सरस सुभग संयोग।
होता नहीं स्वप्नमें भी, पलभर भी तुमसे कभी वियोग॥
और किसी लीलाका मुझको रहता कभी नहीं अब जान।
तुम ही एकमात्र लीलाकी हो रसमयी अनोखी खान॥
डूबा रहता हूँ प्राणेश्वरि! मैं इस लीलामें दिन-रात।
नहीं सुहाती तनमनसे है कभी दूसरी मुझको बात॥