भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
रहते घुले-मिले ही तुम नित / हनुमानप्रसाद पोद्दार
Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 16:01, 3 अप्रैल 2014 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=हनुमानप्रसाद पोद्दार |अनुवादक= |स...' के साथ नया पन्ना बनाया)
रहते घुले-मिले ही तुम नित, कभी न होते विलग, सुजान!
मेरे निकट सदा रहनेमें पाते तुम सुख मधुर महान॥
मुझको भी कैसा सुख होता परम विलक्षण मधु रस-खान।
अनुभवकी वह वस्तु अनोखी, कर सकती मैं नहीं बखान॥
मिली हुई मैं तुमसे ही नित करती सभी देहके काम।
यथायोग्य जो जहाँ उचित, पर रहती संग-रहित, निष्काम॥
नित रस-पान कराती-करती, निरख-निरख विधु-मुख अभिराम।
रहती परम प्रसन्न, सुखी हर स्थितिमें बन तव रूप ललाम॥