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नहीं चाहती तुमसे कुछ भी / हनुमानप्रसाद पोद्दार
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नहीं चाहती तुमसे कुछ भी, नहीं तनिक सुख-आशा।
नहीं लोक-परलोक-नाश की चिन्ता, तनिक दुराशा॥
कहीं रहो तुम, कहीं रहूँ मैं, पड़ता तनिक न अन्तर।
तुममें मैं, तुम मुझमें, रहती यह अनुभूति निरन्तर॥
पर यदि तुम चाहो न इसे तो मुझको दूर हटाओ।
कभी न आने दो, फिर चाहे रोज-रोज बुलवाओ॥
मुझे कहीं भी नहीं, जरा भी, कोई भी कुछ मतलब।
तुम मेरे हो-मेरे हो, बस, अटल अचल निश्चय अब॥
नहीं छूट सकते तुम प्यारे! अब मुझसे मनहारी!
सहज स्वभाव बँध गये तुम, यह गाँठ घुल गयी भारी॥