हो चाहे तुम सबके स्वामी / हनुमानप्रसाद पोद्दार
हो चाहे तुम सबके स्वामी, हो चाहे सबसे बलवान।
हो चाहे तुम अमित शक्तिधर, हो चाहे तुम खुद भगवान॥
हो चाहे तुम विश्वरूप, हो चाहे तुम ही विश्वाधार।
हो चाहे तुम नित्य अचिन्त्यानन्त गुणोंके पारावार॥
हो चाहे तुम सर्वभूतमय, हो चाहे तुम सर्वातीत।
गाना-सुनना मुझे न आता निर्गुण-सगुण किसीके गीत॥
नहीं जानती मैं महव कुछ, नहीं जानती हूँ मैं तव।
कभी जानना भी न चाहती, तुम विशुद्ध कैसे हो सव॥
मेरे हो, बस मेरे हो, मेरे ही नित्य रहोगे एक।
इतना ही जानना-मानना-यही एक, बस, मेरी टेक॥
इसी तरह मैं भी हूँ केवल एक तुम्हारी वस्तु महान।
देख रही मैं, प्रियतम मेरे चढ़े निरन्तर अन्तर-यान॥
करो-कराओ तुम जो चाहे, सदा-सर्वदा हो निशंक।
अति प्रसन्न मैं हूँगी हँसता देख तुम्हारा वदन-मयंक॥
कुछ भी हो, कैसे भी, मुझे तुम्हारे मनका सब स्वीकार।
मरने-जीने, आने-जानेपर न चाहती मैं अधिकार॥
प्रिय-इच्छा-निर्मित यह मेरी पराधीनता शुचि सुख-धाम।
प्रिय-परवशता बनी रहे यह, नित्य-निरन्तर, आठों याम॥
पृथक् कामनायुक्त न जीवित रहे कभी अब मेरा मन।
ममता कभी न जागे, केवल बने रहो तुम मेरे धन॥
सोच न पान्नँ कभी न कुछ मैं अपने लिये पृथक् घनश्याम!
तुम ही साध्य, साधना तुम ही, तुम ही साधक हो अभिराम॥