काम के उच्च नीच स्वरूप / हनुमानप्रसाद पोद्दार
नीच ‘काम’
‘काम’ रहेगा, तबतक होंगें ‘पाप’, मिलेंगे ‘दुःख’ अपार।
‘काम-नाश’का देते शुभ संदेश इसीसे गीताकार॥
उच्च ‘काम’
भौतिक सुख-ऐश्वर्य, विविध स्वर्गादि देवलोकोंके भोग-
प्राप्ति हेतु जो होता है जीवोंका तन-मन-धन-संयोग॥
यज, दान, तप, सेवा, पूजा, देवाराधन, पुण्याचार।
वह भी ‘काम’ सुनिश्चित है; है शुद्ध, तदपि बन्धन-आधार॥
आदर्श उच्च ‘काम’
सबसे न्नँचा है वह सत्पुरुषोंद्वारा सेवित शुभ ‘काम’।
परमादर्श, सफलकर जीवन, शास्त्रविचार, कर्म निष्काम॥
अन्तःकरण-शुद्धिके द्वारा देता मोक्ष-तवका जान।
है मुमुक्षुजनका नित वाछित, श्लाघ्य ‘विनाशक मोहाजान’॥
सर्वोच्च ‘काम’
इससे न्नँची भक्ति-’कामना’, जिससे सर्वेश्वर भगवान।
सेवित होते नित्य, अनन्तैश्वर्य-भूति-श्री-मोद-निधान॥
बार-बार दर्शन देते, करते जनकी रुचिके अनुसार।
देते सालो?यादि पचविध मुक्ति सहज ही परम उदार॥
काम-नाश का उपाय और काम तथा प्रेमका भेद
‘काम’ सृष्टिस्न्का मूल, काम है सहज जीवका निज संस्कार।
अतः मिटा देना उसका अस्तित्व असभव-सा व्यापार॥
कभी ‘काम-रिपु’का केवल बल-संयमसे होता न विनाश।
‘प्रेम’-रूप आते ही पर वह होता नष्टस्न्, बिना आयास॥
‘काम-नाश’का इसीलिये है साधन एक नित्य अव्यर्थ-
‘त्याग-विशुद्ध प्रेम’,में परिणत कर दे उसे, समझकर अर्थ॥
प्रेम-रूपमें परिणत हो, फिर काम नहीं रह जाता ‘काम’।
लौह स्वर्ण बन जानेपर ज्यों हो जाता है शुद्ध ललाम॥
‘काम’ नित्य ‘विषमिश्रित मधु’ है, ‘प्रेम’ नित्य शुचि सुधा अनूप।
काम ‘दुःखपरिणामी’ निश्चित, ‘प्रेम’ नित्य आनन्दस्वरूप॥
‘काम’ अन्धतम प्राप्त कराता निन्दित नरक, तमोमय लोक।
‘प्रेम’ ज्योतिमय रवि देता सुख, दिव्य लोक, निर्मल आलोक॥
‘काम’ स्व-सुखमय, सदा चाहता विविध भोग-अपवर्ग पदार्थ।
‘प्रेम’ त्यागमय, प्रियसुखकामी, मुनिवाछित ‘पचम पुरुषार्थ’॥
प्रेम
पर जिनमें अपनी रुचि कुछ भी नहीं, नहीं कुछ पाना शेष।
नहीं कामना भुक्ति-मुक्तिकी, नहीं वासनाका लवलेश॥
साधन-साध्य प्रेम-सेवा ही, त्यक्त सभी विधि काम-विचार।
सालो?यादि मुक्ति, दर्शन भी सेवा बिना नहीं स्वीकार॥
नहीं त्यागमय परम प्रेम है, रसिक प्रेमियोंका आदर्श।
परमहंस-तापस-ऋषिवाछित वही सुदुर्लभ ‘परमोत्कर्ष’॥
राधा-प्रेम प्रतिमा
राधा इसी नित्य निर्मल अति त्याग-प्रेमकी केवल मूर्ति।
परम प्रेमरूपा वह करती नित माधव-मन-इच्छा-पूर्ति॥
नहीं ‘त्याग’ करती वह कुछ भी, करती नहीं कभी वह ‘प्रेम’॥
स्वयं प्रतिष्ठस्न ‘त्याग-प्रेम’ की, सहज शुद्ध ज्यों निर्मल हेम॥
उसके दिव्य प्रेम-रस-आस्वादनमें हरि नित रहते लीन।
नित्य स्वतन्त्र, पूर्ण वे रहते प्रेमविवश राधा-आधीन॥