भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
नहीं मिलनमें तृप्ति / हनुमानप्रसाद पोद्दार
Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 00:51, 5 अप्रैल 2014 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=हनुमानप्रसाद पोद्दार |अनुवादक= |स...' के साथ नया पन्ना बनाया)
नहीं मिलनमें तृप्ति, कभी अमिलनमें है न अभाव कभी।
हुए एकरस नित्य प्रेम-सरितामें भावाभाव सभी॥
हर वियोगमें हर क्षणमें होता यह अतुलनीय अनुभव।
कभी दो नहीं हुए आजतक, कभी न होने हैं सभव॥
नित्य एक हैं, नित्य मिलन है, है रस-पारावार अनन्त।
मिलन कहाँ कैसा, जब होता कभी न नित्य-मिलनका अन्त॥
मिलनानन्द विलक्षण पैदा कर देता फिर मिलनोन्माद।
दो बन जाते तुरत, प्रतिक्षण बढ़ता मधुमय रस-आस्वाद॥
होती नहीं कदापि तृप्ति, बढ़ती रहती रस-प्यास अपार।
यही चाहते-बने रहें दो, बहती रहे सदा रस-धार॥
करते रहें पान रस मधुमय, दुर्लभ, दिव्य नित्य अविराम।
हो न कल्पना भी वियोगकी, रहे नित्य संयोग ललाम॥
यों बहती रसमयी मधुर अति संतत प्रेम-नदी पावन।
विप्रलभ संयोग मनोहर तट इसके दो मनभावन॥