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जितना जितना मन से आत्मसुखेच्छा का / हनुमानप्रसाद पोद्दार

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जितना-जितना मन से आत्मसुखेच्छा का होता है त्याग।
उतना-‌उतना ही विशुद्ध बनता जाता मनका अनुराग॥
फिर केवल प्रियतम-सुख की ही एक अभीप्सा उठती जाग।
फिर केवल वह प्रियसुख का ही साधन बन रहता बड़भाग॥
स्तुति-निन्दा, शुभ-‌अशुभ, प्रियाप्रिय, लाभ-‌अलाभ, मान-‌अपमान।
बन्धन-मोक्ष, नरक-सुरपतिगृह हो जाते सब द्वन्द्व समान॥
एकमात्र प्रियतम-सुख जीवन, एकमात्र प्रियतम भगवान।
राधा-गोपीजनका पावन दुर्लभ यही स्वरूप महान॥