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श्रीराधा श्रीकृष्ण नित्य ही परम / हनुमानप्रसाद पोद्दार

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श्रीराधा श्रीकृष्ण नित्य ही परम तव हैं एक अनूप।
नित्य सच्चिदानन्द प्रेमघन-विग्रह उज्ज्वलतम रसरूप॥
बने हु‌ए दो रूप सदा लीला-रस करते आस्वादन।
नित्य अनादि-‌अनन्त काल लीलारत रहते आनँदघन॥
कायव्यूहरूपा राधाकी हैं अनन्त गोपिका ललाम।
इनके द्वारा लीला-रस-‌आस्वादन करते श्यामा-श्याम॥
कृष्ण, राधिका, गोपी-जन-तीनोंका लीलामें संयोग।
एक तव ही, तीन रूप बन, करता लीला-रस-सभोग॥
परम तव श्रीकृष्ण नित्य हैं अनुपम सत्‌‌-चित्‌‌-‌आनँदघन।
सत्‌‌ संधिनि, चित्‌‌ चिति, आह्लादिनि है आनन्दशक्ति रसघन॥
ह्लादिनि स्वयं ‘राधिका’, संधिनि बनी नित्य ‘श्रीवृन्दावन’।
बनी ‘योगमाया’, चिति करती रसलीलाका आयोजन॥
राधा स्वयं बनी हैं व्रजमें गोपरमणियाँ अति अभिराम।
लीला-रसके क्षेत्र-पात्र बन, यों लीलारत श्यामा-श्याम॥
ब्रजसुन्दरी प्रेमकी प्रतिमा, कामगन्धसे मुक्त, महान।
केवल प्रियतमके सुख-कारण, करती सदा प्रेम-रस-दान॥
लोक-लाज, कुल-कान, निगम-‌आगम, धन, जाति-पाँति, यश, गेह।
भुक्ति-मुक्ति सब परित्याग कर करतीं प्रियसे सहज सनेह॥
इन्द्रिय-सुखकी मलिन कामना है अति निन्दित कलुषित काम।
मोक्षकाम-कामी न्नँचे साधक भी नहीं पूर्ण निष्काम॥
काम सदा तमरूप, अन्धतम नरकोंका कारण सविशेष।
प्रेम सुनिर्मल हरि-रस-पूरित परम ज्योतिमय शुभ्र दिनेश॥
जिसको नहीं मुक्तिकी इच्छा, जिसे नहीं बन्धनका भान।
केवल कृष्ण-सुखेच्छा-हित जिसके सब धर्म-कर्म, मति-जान॥
ऐसे गोपी-जन-मनमें लहराता प्रेम-सुधा-सागर।
इसीलिये रहते उसमें नित मग्र रसिकमणि नटनागर॥