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मेरी उन राधा के शुचितम / हनुमानप्रसाद पोद्दार

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मेरी उन राधाके शुचितम प्रेमराज्य में नहीं प्रवेश-
काम-भोग का मलिन, कभी भी, किंचित्‌‌, कहीं कल्पना-लेश॥
रागरहित श्रृंगार अनूठा, मोहरहित है पावन प्रेम।
सुख-वाछा-विरहित ममता है, पूर्ण समर्पित योग-क्षेम॥
स्वादरहित सब खान-पान हैं, है अभिमान रहित अतिमान।
भोगबहुलता भोगरहित नित, प्रियतम-सुख की शुचितम खान॥
इन्द्रिय-तन-मन-प्राण-‌अहं-मति हैं प्रियतम के लिये तमाम।
नहीं कार्य कुछ निजका उनसे, करते सब प्रियतम का काम॥
संयमपूर्ण सहज ही होते जगमें, जगके सब व्यवहार।
नहीं किसी से उनका मतलब, प्रियतम-सुख ही केवल सार॥
मेरी ऐसी हैं वे राधा त्रिभुवन-पावनि जीवनसाध्य।
नित्य-तृप्त श्रीमाधव की जो हैं पवित्रतम परमाराध्य॥