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जख़्म दिल का है हर इक हरा आजकल / देवी नांगरानी

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जख़्म दिल का है हर इक हरा आजकल
दर्दे-दिल अपनी हद से बढ़ा आजकल

बन गई है कुछ ऐसी फिज़ा आजकल
ज़ुल्म का है बढ़ा सिलसिला आजकल

तूफां आए गए चुप है साहिल मगर
खामशी में है सब-कुछ दबा आजकल

दिल के दीवारो-दर ज़ख़्म-आलूद हैं
सिसकियों का है मेला लगा आजकल

जान-पहचान का है भरोसा किसे
है नकाबों में सब कुछ छुपा आजकल

ठेस कैसे कहाँ, कब लगी क्या पता
दिल की टीसों से पूछा गया आजकल

मेरे सीने में कैसी ये हलचल मची
दिल में जैसे बवंडर मचा आजकल

आसमां की नज़र उसपे रहती है क्यों
है ज़मीं को ये ‘देवी’ गिला आजकल