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महासेतु है नारी / तारा सिंह

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पूर्व युग सा इस धरा पर,मानव अब नहीं रहा लाचार
देख जगह का अभाव, आसमां का खोलकर द्वार
रहने चला गया क्षितिज के उस पार
सोचा, अपने नये इरादों से मसलकर पृथ्वी को गोल
आकार में बदलकर, रचूँगा एक नया इतिहास
विजय-ध्वज फ़हराऊँगा देवों के सिर पर,जिससे
चतुर्दिक फ़ैली रहेगी सुनहली शांति,बनकर हिम फ़ुहार
हमारी नसों में बह रहा है कलयुग का लहू

अब हम नहीं रहेंगे बनकर प्रकृति का दास
मृतकों के इस अभिशप्त महीतल से ऊपर उठकर
स्वच्छंद होकर विचरूँगा आकाश, जहाँ हमारे
स्वागत में भयभीत होकर चाँद–तारे दोनों
भुज फ़ैलाये खड़े हैं, सूरज कर रहा है इंतजार

सतयुग, त्रेता, द्वापर बहुत पीछे छूट गये
बहुत दूर निकल आया है मृगमय संसार
वसुधा पर अब इतना कोलाहल भर गया, कि
मुश्किल हो गया है, कल्पना का लेना नया आकार
हत्या, लूट-पाट जैसे संक्रामक रोगों का हो गया प्रसार
एकाकी दुखी असहाय मनुज के मन में रहने लगा तनाव

मानव-मन बुद्धि आकाश का इतना किया विकास
कि भ्रांत नर अपने आविष्कृत दानव की भूख
मिटाने, अपने तन को बना दिया आहार
बारी-बारी से मुट्ठी में बंद किया धरती, आकाश
जब चाहता, वारि से वाष्प बनाता, वाष्प से वारि
बनाकर धरती पर करवाता बरसात
मूक ठगी रह जाती प्रकृति,अचंभित रहता आकाश

मनुज देह के मांसल रज से, धरती का निर्माण देखकर
जीवन से मुँह मोड़ती जा रही है नई पीढ़ी
फ़ूलों सा मृदु अंग को त्यागकर, हृदय की मधुरिमा को
पाषाण शिला-सा बनाये जा रहा है,मनुज का यह प्रतिनिधि
इन्हें स्वीकार नहीं अब इस धरती की हरी- भरी हरियाली
निश्चय ही यह नाश का खेल करने वाला है बड़ी अनहोनी

प्रकृति के हर तत्व को मनुज,समझने लगा है अपना गुलाम
नव- धरा के बीच कुछ भी अग्येय न रह पाये
प्रकृति के किस मिट्टी से फ़ूटता, विभव का सहज स्रोत
जिससे इच्छाओं की सभी घाटियाँ पट जाती हैं, इसे ग्यात
करने में जुट गये, करने लगे नये - नये अनुसंधान
पर यह द्रुत उद्दाम एक पल भी विश्राम नहीं दे सकता
न ही ऐसे दिशाहीन उद्देश्य को, कोई कर सकता प्रणाम

चाँद-तारों को उकसाकर, नभ-गिरि को चीरकर
भस्मासुर-सा अणुबल का वरदान प्राप्त कर
आखिर मनिष्य कैसा रचना चाहता इतिहास
क्या वह यह सोचता है, उसके भस्मशेष से
पुन: नवजीवन लेकर जी उठेगा, फ़िर से करेगा-
जीवन निर्माण, तो व्यर्थ है उसकी ऐसी भावना
निराधार है उसका उमंग, झूठा है अभियान

कर-संकुल लोकजीवन का चैन छीनकर
सिंधु, धरा, आकाश को भयभीत कर
इस निराधार बदलाव का क्या है उद्देश्य
जिसमें श्मशान बना जा रहा है धरती का प्रांगण
जीवन कांपता एकांत में भी, मृत्यु रहती अजेय
क्षितिज छोड़ कणक-घन भाग जाता तम में छुपने
प्राणी विलाप करता, खोजता जीने का ध्येय

कूड़े-कचरे, गढ़े-नाले जहाँ भी देखो वहीं
सोये रहते मुर्दे, बिखरे रहते कंकालों के ढेर
टकरा-टकराकर,चटक-चटककर चिनगारी निकलती
निश्चय ही है यह पाषाण नर हृदय की देन