जीवन संध्या के सूने तट पर / तारा सिंह
भावों की मूक गुदगुदी सी
मौन अभिलाषा सी लाचार
जीवन संध्या के सूने तट पर
प्राण जल हिलकोरे में, जब
देखा, पारद के मोती से
तुम्हारी चंचल छवि को
बन, मिट रहा बार-बार
जनशून्य मरुदेश में, ज्यों
रोता निशीथ में पवन
त्यों मेरा उर कर उठा चित्कार
कहने लगा, ओ मेरे जीवन की स्मृति
ओ मेरे, अंतर के अनंत अनुराग
मेरी अभिलाषा के मानस में, तुम
अपनी सरसिज सी आँखें खोलो
और अपनी हँसी संग, मेरे आँसू को
घुल-मिल जाने दो आज
मेरे प्रणय श्रृंग की निश्चेतना में
मेरे प्राण संग, सुरभित चंदन –सी
लिपटी रहो, और मिटा दो
अपने हिम शीतल अधरों से छूकर
मेरे अतृप्त जीवन की तप्त प्यास
मत रखो तुम दूर खुद से उसे, जिसके
शिशु-सा कोमल, हृदय को तुमने कभी
अपनी नज़रों के मृदु कठिन तीरों से
घायल कर,किया था अपना प्रणय विस्तार
जो आज भी, मेरे अलकों के छोरों से
चू रहा बन, अश्रु बूँदों की विविध लाश