भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

देह प्राण मन बुद्धि ‌इन्द्रियाँ / हनुमानप्रसाद पोद्दार

Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 12:25, 19 अप्रैल 2014 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=हनुमानप्रसाद पोद्दार |अनुवादक= |स...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

देह-प्राण-मन-बुद्धि-‌इन्द्रियाँ, इनके स्वाभाविक सब कर्म।
अभिलाषा, आसक्ति, कामना, आशा-तृष्णाके सब मर्म॥
माया, मोह, अहंता, ममता, एवं उनके सब आचार।
इह-परके, परमार्थ-स्वार्थ के नीचे-नीचे सब व्यापार।
धन-जन, जीवन-स्वजन, सुयश-सत्‌‌कीर्ति, परम आदर-समान।
सुगति-सिद्धि,सफलता, प्रजा अमल, विवेक महान॥
देहधर्म, परिवार-धर्म, सब लोकधर्म, वैदिक सब धर्म।
सर्वधर्म, धर्मी, धर्मात्मा, धर्मशरीर, धर्म का मर्म॥
देह-कुटुब-स्वर्ग-सुख, अनुपम अतुल मुक्ति-सुख, ब्रह्माानन्द।
सभी समर्पण हु‌ए सहज ही, रहा न कुछ भी उाम-मन्द॥
जाग्रत्‌‌-स्वप्न, सुषुप्ति-तुरीया, द्रष्ट-दर्शन-दृश्य-विचार।
भूत-भविष्यत्‌‌-वर्तमान सब हु‌ए समर्पित निरहंकार॥
रहा न रंचक स्मृति-‌अर्पणकी, रहा कहीं न तनिक अभिमान-
करता पतन उच्चस्तर से जो, हरते जिसे स्वयं भगवान॥
सर्वत्याग शुचितम होता यों-जहाँ एक प्रियतम-सुख हेतु।
होता उदय प्रेम-रवि उज्ज्वल, मरता काम-राहु तम-केतु॥
होता दैन्य प्रकट पावन तब, बढ़ता प्रियतम-सुखका चाव।
स्मरण ‘अनन्य’, ‘सुखी तत्सुख’ से-यही मधुरतम गोपीभाव॥
परम रत्न इस शुचि अमूल्य रतिकी जो विमल विलक्षण खान।
नित्य अगाध, सहज ही प्रतिपल वर्धमान जो अमित, अमान॥
स्नेह-मान-प्रणयादि अष्टस्न्विध रतिका जो सर्वोच्च सुरूप।
महाभाव-रूपा वे राधा सहज कृष्ण-कर्षिणी अनूप॥