बिका हुआ मकान और वह चिड़िया / गुरप्रीत
अपने बिके हुए मकान में,
बस आख़री पहर और रुकना है
यह क्यों बिका,
कैसे बिका,
सब को सब कुछ बताना है
पत्नी, बहन, छोटा भाई
बांध रहे है सामान सारा
और इसी तरह
माँ मेरी बांध रही है,
हमारे साथ अपने आप को भी
साहस की गठरी में
पिता बहुत ही ध्यान से
उठवा रहे है सारा सामान
एक के बाद दूसरी चीज़
अपनी पूरी समझ के साथ
अपने साथ वह
हमारे दिल को भी,
टूटने से बचा रहे हैं
छोड़ देता हु मैं
पहले से तैयार दलीलों की दीवार पीछे
माँ की आँखे भरी हुई
पिता का मन डगमगाता हुआ
पत्नी की झूठी मुस्कराहट
बेटे का सहमा चेहरा
मैं अपने साथ
सब को दिलासा देता हूँ
पता नहीं किस शक्ति से...
दीवार, दरवाज़े, खिड़कियाँ भी धडकती है
जाना पहली बार,
बिक़े हुए मकान को अलविदा कहते
याद आई वह चिड़िया,
जिस के बारे में,
रोज सुनाता था अपने सुखन* को
कितनी कहानियाँ|
पहली बार रह रहे है
किराए के मकान में
अजनबी अजनबी सा सब कुछ
बदल रहे है अपने आप में,
सहज होने के लिए करते है
कुछ और दिनों का इंतज़ार
माता पिता संकट निवारण के लिए
सोचते है,
किसी तीर्थ स्थान पर जाने को,
मैं कविता के द्वार की सीढियों पर,
नमस्तक होता हूँ
सामने चहचहा रही
होती है,
वह चिड़िया...
- (सुखन -- बेटे का नाम )