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हाल-फ़िलहाल / शिरीष कुमार मौर्य
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लालसाओं के मुख खुले ख़ून दिखा दांत दिखे
नाख़ून छुपे हुए आए पंजों से बाहर
रामपुरी की तरह हाथ तमंचा हुआ
दिल रहा नहीं
एक मशीन ही बची धमनियों में ख़ून फेंकने के वास्ते
शरीरों में बिलबिलाए कीड़े बाहर निकलते ही
दूसरी देह को खा जाते
आसपास के सड़ते दिमाग़ों की बदबू सांसों में आने लगी
अकबका कर जागा मैं बेशर्म नींद से
जागते रहने की कसम जो खाई थी बिला गई
बिना कुछ रचे नींद आ गई
अब एक दोपाया बचा है
काम पर जा रहा है काम से आ रहा है
कवि की कमाई है
एक अध्यापक खा रहा है।