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दुनियाँ केहेन कठोर सजनि गय / कालीकान्त झा ‘बूच’
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जाहि ठोर पर प्रेमक अमरित,
तेहि पर पड़ल अँगोर सजनि गय...
रखलहुँ जकरा जोड़ि जोड़ि क'
फेंकि रहल छी तोरि फोरि क'
पयलहुँ जाहि जहान कोरि क'
अयलहुँ ताहि मसान छोड़ि क'
मरणक साँझ एही ठां होइछ
जाहि ठां जनमल भोर सजनि गय...
जीवन सरक सतह अछि दड़कल,
यौवन परक कमल अछि झड़कल
चित्तक विवश बताहि चातकी
लेल भेल आकाश पातकी
नीचाँ खसल सुहासक चपला
ऊपर लटकल नोर सजनी गय'...
कहियो क' हे लागि रहल अछि
खूनी लोकक जेल जकाँ ई
कहियो क' हे भागि रहल अछि
निर्मोही भ' रेल जकाँ ई
नीचाँ दैछ उतारि एक केँ
दोसर केँ क' कोर सजनी गय'