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अनुपम-उपहार / कालीकान्त झा ‘बूच’

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अनुपम बरु उपहार अहँक ई ..
करू कोना स्वीकार सुमुखि हे ,
स्नेहक गिरिमल हार अहँक ई...
मानव रूप सरोजक ऊपर
विहँसि रहल दुतियाक चान अछि
रहलहुँ नहि हम मधुप बनल
मधुकरक रूप में विकल प्राण अछि
शोभि सकत की झुकल कान्ह पर
छल्हिगर छांछक भार अहँक ई...

मोनक बन्न कपाट मुदा
स्वागत अछि सुरसरि बनि क' आबू
हाज़िर उच्च ललाट मुक्त
कुन्तलक बाट पावनि भ' पाबू
मुदा बालुका बाहुपाश में
कछमछ कोशी धार अहँक ई...

विकल विरागक लटकल घर में
अहाँ खसाबी भावक डेरा
चाही हमरा ठरल सेज तर
निरस चाननक पजरल चेरा
भदवारिक उपहार हमर
चैतक साजल श्रृंगार अहँक ई...

प्रवल प्रेम परितोष नोर नहि
शोभय सुमुखि सुहाग सेज पर
औखन धरि हे नव चकोरि
छी ताकि रहल पुरने मयंक पर
मरूघट कूकि कनैत रहब
के बूझत दिव्य दुलार अहँक ई...
 
आँकुर सगरो फोरि देलहुँ
अवधिक उनटल एहि शुष्क डारि में
दर्शित भेल पुराण पुरुष ,
हे नव्य नारि तब दिव्य द्वारि में
बदला की द' सकब मुदा हम ,
बिसरब नहि उपकार अहँक ई...

मानि गेलहुँ छी सुधे मुदा हम
राखू कत' कोष उमरल अछि
सुभगे देखू दीन दशा
ग्रीवा धरि ..नेहक गरल भरल अछि
हमरा पर जेठक जुआरि ,
माघक माँतल संसार अहँक ई...

हे देवि! करू जुनि अनुरंजन
हमरा पर साँझक दुरगंजन !
अछि परल जत' ढलढल फोँका
की करी तत' ममतामंजन
हम जलविहीन दड़कल पोखरि
पुष्पित पाटलक मोहार अहँक ई...