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नव बरखक / कालीकान्त झा ‘बूच’

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नव बरखक जर्जर जनजीवन!
छिटकि-छिटकि क' एहि अगहन सं
खदकि रहल विनु अछ तक अदहन
तेहत्तरिक त्रिशूलक व्रण पर
चौहत्तरिक लवण छिड़ियायल
बाँकी छल किछु बचल प्राण त'
ल' क' कफ़न मरण चलि आयल
कयलहुँ अपने चर्म चक्षु सँ
हम अपना पिण्डक शुभदर्शन
आगू अछि जेठक अकाल त'
माघक बाघ नंगेटि रहल अछि
पूषक तिल संक्रांति काल मे
शकरकंदो नहि भेटि रहल अछि
गामक गाम मसान बनत की
जरि जायत एहि बेरुक मधुवन?
टालक टाल नार परती पर
शीशक शीश दोकान गेल रे
खखरी अछि बाँचल दलान दिशि
आँगन सभटा धान गेल रे
हमरो हिस्सा लोढि लेल के
ताकि रहल चिंतातुर चितवन
नव-बरखक जर्जर जनजीवन