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विरहिनी / कालीकान्त झा ‘बूच’

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रहि-रहि कऽ अहँक लेल देह फेर धयलहुँ अछि,
लागल अहींक एक ध्यान,
आऊ-आऊ रूसल हमर भगवान
सहलहुँ कतेको हम जन्मक असह्य ज्वाल,
कहुना बितयलहुँ अछि मरणक बहु अंतराल,
मधुवन मे हे मोहन आइ हमर अवसर अछि
राखि लिअ राधिका केर मान
वृन्दावन कुहरैछ यमुँना कनैछ हाय,
गोदावरी आँचर तर छाती हहरैछ आइ
गोकुल मे लाख-लाख मोन बहटारल हम
तैयो बड़ व्याकुल परान
अहँक रूप राखि नैन युग-युग सँ जागलि छी,
मुरलीक मधुर वैन गुनि-गुनि कऽ पागलि छी
परकीया पतिता हम प्रेमक पुजारिन के,
नहि-चाहि गीताक ज्ञान
जकरा छै लागल हा विरहक प्रचंड रोग,
तकरा की कऽ सकतै निष्कामी कर्मयोग
हमरा लग अपने छी चीर नवनीत चोर
अंतः बनू बरू महान
अहँक लेल अपयश के जीवन मे जोगि लेब,
पापो जौं लागत तऽ नरको के भोगि लेब,
इच्छा नहि मृत्युक अपवर्गक आ स्वर्गक अछि,
अहँक छाड़ि चाही ने आन,
आऊ...