भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
मेरी ज़ुबाँ से मेरी दास्ताँ / सुदर्शन फ़ाकिर
Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 11:25, 7 मई 2014 का अवतरण
मेरी ज़ुबाँ से मेरी दास्ताँ सुनो तो सही
यक़ीं करो न करो मेहरबाँ सुनो तो सही
चलो ये मान लिया मुजरिमे-मोहब्बत हैं
हमारे जुर्म का हमसे बयाँ सुनो तो सही
बनोगे दोस्त मेरे तुम भी दुश्मनों एक दिन
मेरी हयात की आह-ओ-फ़ुग़ाँ सुनो तो सही
लबों को सी के जो बैठे हैं बज़्मे-दुनिया में
कभी तो उनकी भी ख़ामोशियाँ सुनो तो सही
कहोगे वक़्त को मुजरिम भरी बहारों में
जला था कैसे मेरा आशियाँ सुनो तो सही