मेरे पैर में एक कील चुभी थी|
वह मुझे सालती रही जीवन भर|
मैं उसे सहेजती रही पालती रही|
वह कील मुझे अपने ही रंग में ढालती रही|
पर जब उसने मुझे और मेरे मन को कर दिया लहुलुहान|
तब मैंने उसे उखाड़ कर फ़ेंक दिया समझ बेकार समान||
मैंने ठीक किया या गलत मैं नहीं जानती|
झूठे रीति रिवाजों तथा दकियानूसी विचारो को मैं नहीं मानती|
आज मेरे जैसी न जाने कितनी कील की चुभन सह रही है|
कुछ तो न जीती है न मरती है न देहरी ही पार करती है||
मैं यह भी नहीं जानती कि कीलों को उखाड़कर|
फैंकने वाली दुखी है या सुखी|
कुछ ऐसी भी है जो पैरों में कील चुभने नहीं देती|
अगर चुभ भी जाती है तो उसे उखाड़ कर दूर फ़ेंक आती है||
पर जो कील अंदर तक गढ़ जाती है|
वह जीवन भर बड़ा सताती है|
जब वह अपने नुकीले पंख फैलाती है|
तो चाहने पर भी उखड़ नहीं पाती है||
आज भी बहुतों के पैरों में कीलें चुभी होंगी|
उन्होंने भी वह अनचाहा दर्द सहा होगा|
दुनियाँ में कील चुभाने वालों की कमी नहीं रही|
सहने वालों की किस्मत में तो गमी ही गमी रही||