भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
गीति-2 / अज्ञेय
Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 12:27, 12 मई 2014 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अज्ञेय |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCatKavita}} <poe...' के साथ नया पन्ना बनाया)
छोड़ दे, माँझी! तू पतवार।
आती है दुकूल से मृदुल किसी के नूपुर की झंकार,
काँप-काँप कर 'ठहरो! ठहरो!' की करती-सी करुण पुकार
किन्तु अँधेरे में मलिना-सी, देख, चिताएँ हैं उस पार
मानो वन में तांडव करती मानव की पशुता साकार।
छोड़ दे, माँझी! तू पतवार।
जाना बहुत दूर है पागल-सी घहराती है जल-धार,
झूम-झूम कर मत्त प्रभंजन करता है भय का संचार
पर मीलित कर आँखों को तू तज दे जीवन के आधार-
ऊषा गगन में नाच रही होगी जब पहुँचेंगे उस पार!
छोड़ दे, माँझी! तू पतवार।