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ब्रज में रथ चढि चलेरी गोपाल / रसिक दास
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ब्रज में रथ चढि चलेरी गोपाल।
संग लिये गोकुल के लरिका बोलत वचन रसाल॥१॥
स्रवन सुनत गृह घ्रुह तें दौरी देखन को ब्रजबाल।
लेत फेरि करि हरि की बलैयाँ वारत कंचन माल॥२॥
सामग्री लै आवत सीतल लेत हरख नन्दलाल।
बांट देत और ग्वालन कों फूले गावत द्वाल॥३॥
जय जयकार भयो त्रिभुवन में कुरुम बरखत तिहिं काल।
देखि देखि उमगे ब्रजवासी सबै देत करताल॥४॥
यह बिधि बन सिंहद्वार जब आवत माय तिलक कर भाल।
लै उछंग पधरावत घर में चलत मंदगति चाल ॥५॥
करि नौछावरे अपने सुत की मुक्ताफल भरि थाल।
यह लीला रस रसिक दिवानिसि सुमिरन होत निहाल॥६॥