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आश्ना थे ख़ुद से फिर ना-आश्ना होते गए / सरवर आलम राज़ ‘सरवर’

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आश्ना थे ख़ुद से, फिर ना-आश्ना होते गये
हो भला इस इश्क़ का,हम क्या से क्या होते गये!

अश्क़-ए-ग़म बहते रहे और नक़्श-ए-पा होते गये
ज़िन्दगी के कर्ज़ सारे यूँ अदा होते गये

ना-रसाई का फ़साना क्या कहें,किससे कहें?
मंज़िलें आयीं तो हम बे-दस्त-ओ-पा होते गये

इत्तिफ़ाकन अपनी हालत पर नज़र जब जब पड़ी
हम निगाहों में ख़ुद अपनी बे-रिदा होते गये

रेग्ज़ार-ए-आरज़ू में वक़्त वो हम पर पड़ा
राहज़न चेहरे बदल कर रहनुमा होते गये

अहल-ए-दुनिया की ज़रा देखो करम-फ़र्माइयां
आड़ में ईमां की बन्दे भी खु़दा होते गये

इश्क़ में बेताबियों की लज़्ज़तें मत पूछिए
नाला-हाये आरज़ू हर्फ़-ए-दुआ होते गये

ये कहो "सरवर" तुम्हारी इन्किसारी क्या हुई?
तुम भी दुनिया की तरह क्यों ख़ुद-नुमा होते गये?