भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
आश्ना थे ख़ुद से फिर ना-आश्ना होते गए / सरवर आलम राज़ ‘सरवर’
Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 14:09, 23 मई 2014 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=सरवर आलम राज़ 'सरवर' |अनुवादक= |संग...' के साथ नया पन्ना बनाया)
आश्ना थे ख़ुद से, फिर ना-आश्ना होते गये
हो भला इस इश्क़ का,हम क्या से क्या होते गये!
अश्क़-ए-ग़म बहते रहे और नक़्श-ए-पा होते गये
ज़िन्दगी के कर्ज़ सारे यूँ अदा होते गये
ना-रसाई का फ़साना क्या कहें,किससे कहें?
मंज़िलें आयीं तो हम बे-दस्त-ओ-पा होते गये
इत्तिफ़ाकन अपनी हालत पर नज़र जब जब पड़ी
हम निगाहों में ख़ुद अपनी बे-रिदा होते गये
रेग्ज़ार-ए-आरज़ू में वक़्त वो हम पर पड़ा
राहज़न चेहरे बदल कर रहनुमा होते गये
अहल-ए-दुनिया की ज़रा देखो करम-फ़र्माइयां
आड़ में ईमां की बन्दे भी खु़दा होते गये
इश्क़ में बेताबियों की लज़्ज़तें मत पूछिए
नाला-हाये आरज़ू हर्फ़-ए-दुआ होते गये
ये कहो "सरवर" तुम्हारी इन्किसारी क्या हुई?
तुम भी दुनिया की तरह क्यों ख़ुद-नुमा होते गये?