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आखिर / विश्वनाथप्रसाद तिवारी
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भूल जाती हैं कितनी दंतकथाएँ
सूख जाती हैं कितनी सदानीराएँ
उड़ जाता है कैसा भी रंग
छूट जाते हैं कैसे भी हिमवंत
खत्म हो जाती है कलम की स्याही
टूट जाती है तानाशाह की तलवार
सह्य हो जाती है कैसी भी पी़ड़ा
कट जाता है कितना भी एकांत