भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
मेरा रूखा-सूखा खाणा / मंगतराम शास्त्री
Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 14:29, 25 मई 2014 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=मंगतराम शास्त्री |अनुवादक= |संग्र...' के साथ नया पन्ना बनाया)
मेरा रूखा-सूखा खाणा, मनै मिली सबर की घूंट पीण की सीख विरासत मैं
मनै तो सब किमे न्यूं समझावै, भाग तै बाध कुछे ना थ्यावै
धमकावै यू ताणा-बाणा, मेरी बींधै चारों खूंट गेर दें जकड़
हिरासत में
मनै तो मिली कर्म की सीख, सदा पिटवाई मेरे पै लीख
मनै झींख कै मिलता दाणा, मैं दाबूं हळ की मूंठ मगर ना सीर
बसासत में
मनै ना मिल्या पढ़ण का मौका, मेरे संग होया हमेशा धोखा
बड़ा ओखा टेम पुगाणा, या मची चुगरदै लूट फैलर्या जहर सियासत में
मैं हाड पेल करूं काम, फेर भी ना मिलते पूरे दाम
मंगतराम सिखावै गाणा, कहै सदा रहो एकजूट एकता ना रहै परासत मैं