भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

कलियुग बोल्या परीक्षित ताहीं, मेरा ओसरा आया / लखमीचंद

Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 19:58, 25 मई 2014 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=लखमीचंद |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCatHaryanaviR...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

कलियुग बोल्या परीक्षित ताहीं, मेरा ओसरा आया।
अपने रहण की खातिर मन्नै इसा गजट बणाया॥

सोने कै काई ला दूंगा, आंच साच पै कर दूंगा -
वेद-शास्त्र उपनिषदां नै मैं सतयुग खातिर धर दूंगा।
असली माणस छोडूं कोन्या, सारे गुंडे भर दूंगा -
साच बोलणियां माणस की मैं रे-रे-माटी कर दूंगा।

धड़ तैं सीस कतर दूंगा, मेरे सिर पै छत्र-छाया।
अपने रहण की खातिर मन्नै इसा गजट बणाया॥

मेरे राज मैं मौज करैंगे ठग डाकू चोर लुटेरे -
ले-कै दें ना, कर-कै खां ना, ऐसे सेवक मेरे।
सही माणस कदे ना पावै, कर दूं ऊजड़-डेरे -
पापी माणस की अर्थी पै जावैंगे फूल बिखेरे॥

ऐसे चक्कर चालैं मेरे मैं कर दूं मन का चाहया।
अपने रहण की खातिर मन्नै इसा गजट बणाया॥