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सर्वातीत, सर्वविरहित / हनुमानप्रसाद पोद्दार

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 सर्वातीत, सर्वविरहित, जो सर्व, सर्वमय, सर्वाधार।
 सर्वव्यापक, सर्वात्मा जो, स्वयं सृष्टिस्न, स्रष्टस्न, संहार॥
 मायापति, नित मायाविरहित, ब्रह्मा, ब्रह्मामय, ब्रह्माधार।
 निर्गुण, सगुण निराकृति, नित्य, निरंजन दिव्य सगुण साकार॥

 प्रकृति-विकृतिमय, व्यक्त, प्रकृतिगत पुरुष, विश्वमय, विश्वाकार।
 अपरिवर्तन रूप, एकरस, नित वैचित्र्यपूर्ण संसार॥
 ब्रह्मा-विष्णु-महेश रूप से करते जो लीला-विस्तार।
 सरस्वती-लक्ष्मी-काली के विविध अनन्त प्रकट आकार॥

 देश-काल-बन्धन-विरहित, जो देश-कालमय, कालातीत।
 कालरूप विकराल, सुनाते नित विनाश के भैरव गीत॥
 नित्य-‌अनन्त-‌असीम-‌अलौकिक, परम स्वतन्त्र ‘स्वयं भगवान’।
 करते अन्तमयी-सी लीला, लौकिक, सीमित, कर्म प्रधान॥

 ‘अवतारी’ सब अवतारों के, सब के‘अंशी’ नित्य, अनादि।
 सभी ईश्वरों के ईश्वर, सब लोक-महेश्वर, सब के आदि॥
 षोडशकलापूर्ण, संचित-घन ऐश्वर्य सपन्न, उदार।
 अज, अविनश्वर, चिन्मय भगवद्देहरूप, नित विगतविकार॥

 लीलामय, लीला, लीला के दर्शक, दिव्य सच्चिदानन्द।
 अखिल प्रेम-रससिन्धु, प्रेमघनमूर्ति, प्रेम-वितरक स्वच्छन्द॥
 विविध अचिन्त्यानन्त विरोधी गुणधर्माश्रयरूप महान।
 प्रकट हु‌ए प्रभु कारागृह में कृष्ण अतुल ऐश्वर्य निधान॥

 साधुजनों का परित्राण, अति दुष्ट का करने निस्तार।
 धर्मस्थापन-हेतु स्वयं प्रभु ने यह लिया दिव्य अवतार॥
 हरने को निज प्रेमी विरही-जन का घोर विरह-संताप।
 प्रेमधर्म-संस्थापनार्थ शुचि इच्छामय प्रगटे प्रभु आप॥

 भाद्र, असित अष्टमी, अजन-जन्म रोहिणी शुभ नक्षत्र।
 मध्यरात्रि, बुधवार, छा गयी प्रभा सुखद अनुपम सर्वत्र॥
 हु‌आ सुशोभन काल निरतिशय सर्व शुभगुणों से संयुक्त।
 ग्रह-तारे-नक्षत्र हो उठे सभी तुरंत सौयतायुक्त॥

 हुर्ईं प्रसन्न दिशा‌एँ सारी, तारे नभ छाये चहुँ ओर।
 नगर-ग्राम-व्रज हु‌ए धरणि के आकर मंगलमय बेछोर॥
 सरिता हु‌ई सुनिर्मल-सलिला, निशि सर विकसे कंञ्ज अपार।
 लदे वृक्ष पुष्पों से, पिक-‌अलि करने लगे चहक-गुँजार॥

 शीतल-मन्द-सुगन्ध मधुर बह चला पवन सुख-स्पर्श पवित्र।
 असुर-विरोधी साधुमनों में उदय हु‌आ सुख सहज विचित्र॥
 सहसा सुर-दुन्दुभी बज उठीं, स्वर्गलोक में अपने-‌आप।
 सुनकर जन्म अजन्मा का, सुर हर्षित हु‌ए, मिटा संताप॥

 किंनर, शुचि गन्धर्व गा उठे, करने लगीं अप्सरा नृत्य।
 करने लगे सिद्ध-चारण स्तुति, मन में मोद भरे सब सत्य॥
 लगे देव-‌ऋषि-मुनि सराहने पृथ्वी का सौभाग्य अपार।
 जलधर करने लगे सिन्धुतट जा, मृदु-मृदु गर्जन सुख-सार॥

 लगा जगमगाने कारागृह, फैल गया शुचि सुखद प्रकाश।
 कारा का विषण्ण कण-कण मानो कर उठा मधुर-मृदु हास॥
 खुली हथकड़ी-बेड़ी श्रीवसुदेव-देवकी की तत्काल।
 देख अलौकिक तेजपुंज अद्भुत बालक, हो गये निहाल॥

 विष्णुरूप, भुज चार, शङ्ख शुभ, गदा-चक्र-‌अबुज अभिराम।
 शोभित श्याम-नील सुन्दर तन पर पीताबर दिव्य ललाम॥
 वक्षःस्थल श्रीवत्स, कण्ठ कौस्तुभमणि, नेत्र-कमल सुविशाल।
 परम सुशोभित, रूप-राशि, सुर-‌ऋषि-मुनि-मन-हर परम रसाल॥

 मणि-वैदूर्य-सुमंडित मनहर मुकुट, कर्ण कुण्डल द्युतिमान।
 चमक रहे उनकी द्युति से काले घुँघराले केश अमान॥
 कटि-किन्कणी, कड़े-बाजूबँद, शोभित बाहु विलक्षण-रूप।
 विस्मय-हर्ष-भरे नेत्रों से निरख रहे वसुदेव अनूप॥

 करने लगे स्तवन, प्रभु को पहचान, भरे मन परमानन्द।
 प्रभु ने दिया पुरातन परिचय पिछले जन्मों का, सुख-कंद॥
 सुन देवकी कंस-भय-भीता माता का अति करुणालाप।
 बन शिशु, ‘पहुँचा दो मुझको गोकुल’-प्रभु बोले अपने-‌आप॥

 स्वयं स्वरूपशक्ति योगमाया, धर अनुजा का शुचि स्वाँग।
 प्रगटी गोकुल नन्द-भवन में, जननि यशोदा के बड़भाग॥
 इधर खुल गये सारे ताले, सोये सब प्रहरी, खो चेत।
 प्रिय शिशु को ले गोद प्यार से, चले पिता वसुदेव सचेत॥

 यमुना ने, कर पद-स्पर्श, दे दिया मार्ग उनको सुखयोग।
 पहुँचे नंद-भवन, देखे सब खुले द्वार, सोये सब लोग॥
 सुला दिया शिशु को धीरे से, तुरत यशोदा जी के पास।
 खोये निधि ज्यों, ले कन्या को, चले उदास, भरे उल्लास॥

 पहुँचे कारागृह तुरंत ही, हु‌ए बंद उस के सब द्वार।
 शिशु-रोदन सुन जागे प्रहरी, पहुँचा एक कंस-दरबार॥
 सुनते ही दौड़ा पागल-सा कंस उसी क्षण, ले तलवार।
 पहुँचा, छीन लिया कन्या को, भर मन में आश्चर्य अपार॥

 कन्या कैसे हु‌ई, न समझा मर्म, पकड़ कन्या का हाथ।
 दिया पछाड़ शिला पर पापी ने अति निर्दयता के साथ॥
 रोती रही देवकी, कन्या उड़ी, गयी नभ बिना प्रयास।
 अष्ट भुजा आयुधयुत देवी बोली, देकर उसको त्रास॥

 ‘मूर्ख! हो चुका है पैदा वह, तुझे मारनेवाला वीर।
 मुझे मारकर क्या होगा, मत मार बालकों को, धर धीर’॥
 इधर बह चला नन्दालय में परमानन्द-स्रोत निस्सीम।
 करने लगे सभी अवगाहन मा, छोड़ मर्यादा-सीम॥
 फिर तो लीला चली रसमयी परम सुदुर्लभ, परम पुनीत।
 मूर्तिमान हो चला सत्य-वात्सल्य-मधुर रस का संगीत॥

   × × × ×
 व्रज-जीवन, गो-गोपी-सुख-धन, नन्द-यशोदा के प्रिय लाल।
 सखा-परमधन, गो-वत्सों के सुचि सेवक, रक्षक, गोपाल॥
 गोचारक, वन-वन पावनकर, वनचर-बन्धु विविध रुचि-रंग।
 क्रीड़ा सतत प्राकृत बालक सम बाल-सखागण-संग॥

 असुरोद्धारक, कालिय-मर्दन, दुष्ट-निकन्दन, नित सुखरूप।
 इन्द्र-दर्पहर, ब्रह्मा-मोह-हर, स्वजन-दुःख-हर, रूप अनूप॥
 रसमय, नयन-हरण मुनिजन-मन, सिर घुँघराले काले केश।
 मुरलीधर, शिखिपिच्छ-मुकुटधर, गिरिवरधर, नव नटवर-वेश॥

 रास-विहारी, कुञ्ज-विहारी, चिर-विहारी व्रजराज।
 रसिक, रसार्णव, रस-पिपासु, रस-लोलुप, रस-वितरक रसराज॥
 गोपीजन-मन-मोहन, गोपी-रंजन, गोपी-जीवन-प्राण।
 राधाकान्त, राधिकावल्लभ, राधाप्रेम रहित परिमाण॥

 राधाराध्य, राधिकाराधक, नित्य अभिन्न राधिका-तव।
 प्रेम-सुधा-रस-लीलास्वादन-हेतु भिन्न नित रखते स्वत्व॥
 नित नवीन सौन्दर्य-दिव्य-माधुर्य-रसामृत-सिन्धु अनन्त।
 नित नवीन आनन्द-तरंगित नित्याकर्षक रूप अनन्त॥

 मधुर मधुरतम नव-नीरद-तनु नील-श्यामसुन्दर गौराभ।
 लीला मधुर मधुरतम शुचितम रास, महाम जीवन लाभ॥
 मथुरागमन, में मुष्टि-चाणूर-कंस-कुञ्वलय-‌उद्धार।
 कर के मुक्त पिता-माता को चरण-नमन कर बारंबार॥
 
 दे आश्वासन, उन्हें सुखी कर, उग्रसेन का कर अभिषेक।
 स्वयं बने सेवक, रख अपनी शुचि निष्काम-भाव की टेक॥
 गये द्वारका कर के अपनी मथुरा-लीला को सपन्न।
 मुक्त किया वध कर अनेक असुरों का, जो थे राज्यापन्न॥

 इन्द्रप्रस्थ जा मिले बन्धु पाण्डव-गण से फिर अति मतिमान।
 कुरुक्षेत्र के रण-प्रान्गण में दिव्य सुनाया गीता-ज्ञान॥
 परम त्यागमय दिव्य प्रेम का महाभावमय राधारूप।
 स्वयं दिखाया, मूर्तिमान हो, ऋषि-मुनि-दुर्लभ भाव अनूप॥

 बिना त्याग के प्रेम न होता, प्रेम बिना न कभी आनन्द।
 राधा-गोपी-प्रेम दिव्य से यह शिक्षा दी आनँदकंद॥
 गीता से सिखलाया-“आशा-राग-कामना-द्वेष-ममत्व-
 अहंकार-‌अभिमान-नाश, प्रभु की शरणागति, भाव समत्व’॥

 यह दिखलाया जीवन में कर स्वयं आचरण अति आदर्श।
 मानवरूप बने परतम प्रभु ने, जो विरहित हर्षामर्ष॥
 युगपत्‌‌ रसिक-विरागी, भोगी-त्यागी, निष्ठुर-करुणागार।
 मायावी-‌अति सरल, गृही-संन्यासी, अति संग्रही-‌उदार॥

 कर्मी-ज्ञानी, अति प्रवृा-सुनिवृा नित्य, गुण-निर्गुणरूप।
 ममतायुक्त-नित्य अति निर्मम, मोही-निर्मोही अपरूप॥
 नित्य परम समता-स्वरूप-निज-रूप-प्रतिष्ठित, नित्य स्वभाव।
 नहीं कहीं भी किसी भाँति उन सत्य तव का कभी अभाव॥

 क्षर-‌अक्षर, अतीत दोनों से, पूर्ण पुरुष पुरुषोम आप।
 प्रकृति-‌अधीश्वर निज माया से प्रकटे हरण शोक-संताप॥
 गोपीप्रेम, ज्ञान गीता का दिव्य परम देकर उपदेश-
 श्रद्धायुत हो करें सभी आचरण, दिया यह दिव्यादेश॥

 जन्माष्टमी-महोत्सव का है परम लाभ यह, सबका सार।
 शरणागत हो श्रद्धा से हम पा लें इसे साध्य-‌अनुसार॥