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चकित-थकित अपलक नेत्रों से / हनुमानप्रसाद पोद्दार

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चकित-थकित अपलक नेत्रों से देख रहे गुरु गर्ग महान।
 नँदरानी की गोद मनोहर मधुर श्याम शिशु श्रीभगवान॥
 सफल हो गया जीवन, जप-तप-विद्या-बुद्धि सफल सब आज।
 कुल, यदुकुल का हु‌आ सफल शुभ आचार्यत्व सकल सुख-साज॥

 मन आया-लुट पडूँ चरण में , तुरत चढ़ा लूँ पद-रज शीश।
 प्रकट परात्पर ब्रह्मा स्वयं सब लोक-महेश्वर श्रीजगदीश॥
 भूल सभी ऐश्वर्य, स्वयं जब शिशु बन रहे जननि की गोद।
 हृदय लगा लूँ तुरत उठाकर, बदन चूम लूँ यों न समोद॥

 पर यदि कुल-‌आचार्य वृद्ध मैं विप्र करूंगा चरण-स्पर्श।
 कह उन्मा हँसेंगे सारे, होगा कुछ के चिअमर्ष॥
 यदि मैं हृदय लगा लूँगा शिशु सुंदर को, भर मन उल्लास।
 समझ चपलता मेरी बूढ़े-बड़े करेंगे सब उपहास॥

 छूट रहा पर धैर्य, जा रहा छूटा सारा सोच-विचार।
 इसी बीच मुसका मोहन ने किया तुरत माया-विस्तार॥
 कुल-गौरव जग उठा, भूल सब, लगे कराने वे संस्कार।
 पर छूटा न तनिक भर मन से आकर्षण शिशु का अनिवार॥