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अंतरीचें गुज बोलूं ऐसें कांहीं / गोरा कुंभार
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अंतरीचें गुज बोलूं ऐसें कांहीं। वर्ण व्यक्त नाहीं शब्द शून्य॥ १॥
जयजय झनकूट जयजय झनकूट। अनुहात जंगट नाद गर्जे॥ २॥
परतल्या श्रुति म्हणती नेती। त्याही नादा अंतीं स्थिर राहे॥ ३॥
म्हणे गोरा कुंभार सत्रावीचें नीर। सेवी निरंतर नामदेवा॥ ४॥