भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

अंतरीचें गुज बोलूं ऐसें कांहीं / गोरा कुंभार

Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 01:15, 1 जून 2014 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=संत गोरा कुंभार |अनुवादक= |संग्रह= ...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

अंतरीचें गुज बोलूं ऐसें कांहीं। वर्ण व्यक्त नाहीं शब्द शून्य॥ १॥
जयजय झनकूट जयजय झनकूट। अनुहात जंगट नाद गर्जे॥ २॥
परतल्या श्रुति म्हणती नेती। त्याही नादा अंतीं स्थिर राहे॥ ३॥
म्हणे गोरा कुंभार सत्रावीचें नीर। सेवी निरंतर नामदेवा॥ ४॥