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काया वाचा मन एकविध करी / गोरा कुंभार

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काया वाचा मन एकविध करी। एक देह धरी नित्य सुख॥ १॥
अनेकत्व सांडीं अनेकत्व सांडीं। आहे तें ब्रह्मांडीं रूप तुझें॥ २॥
निर्वासना बुद्धि असतां एकपणें। सहज भोगणें ऐक्य राज्य॥ ३॥
म्हणे गोरा कुंभार नाहीं रूप रेख। तेंचि तुझें सुख नामदेवा॥ ४॥