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गुजरात: 2002 / सुशान्त सुप्रिय
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जला दिए गए मकान में
मैं नमाज़ पढ़ रहा हूँ
उस मकान में जो अब नहीं है
जिसे दंगाइयों ने जला दिया था
वहाँ जहाँ कभी मेरे अपनों की चहल-पहल थी
उस मकान में अब कोई नहीं है
दरअसल वह मकान भी अब नहीं है
जला दिए गए उसी नहीं मौजूद मकान में
मैं नमाज़ पढ़ रहा हूँ
यह सर्दियों का एक
बिन चिड़ियों वाला दिन है
जब सूरज जली हुई रोटी-सा लग रहा है
और शहर से संगीत नदारद है
उस जला दिए गए मकान में
एक टूटा हुआ आइना है
मैं जिसके सामने खड़ा हूँ
लेकिन जिसमें अब मेरा अक्स नहीं है
आप समझ रहे हैं न?
जला दिए गए उसी नहीं मौजूद मकान में
मैं लौटता हूँ बार-बार
वह मैं जो दरअसल अब नहीं हूँ
क्योंकि उस मकान में अपनों के साथ
मैं भी जला दिया गया था