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विडम्बना / सुशान्त सुप्रिय
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कितनी रोशनी है
फिर भी कितना अँधेरा है
कितनी नदियाँ हैं
फिर भी कितनी प्यास है
कितनी अदालतें हैं
फिर भी कितना अन्याय है
कितने ईश्वर हैं
फिर भी कितना अधर्म है
कितनी आज़ादी है
फिर भी कितने खूँटों से
बँधे हैं हम