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पुत्र-शोक-संतप्त कभी कर / हनुमानप्रसाद पोद्दार

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(राग पलास)

पुत्र-शोक-संतप्त कभी कर, दारुण दुख है देती।
कभी अयश, अपमान दानकर, मान सभी हर लेती॥
कभी जगतके सुन्दर सुख सब छीन, दीन मन करती।
पथभ्रान्त कर कभी कठिन व्यवहार विषम आचरती॥
दारुण दुख-दारिद्र्‌य-दीनता क्षणभरमें हर लेती।
पल-पलमें, प्रत्येक दिशामें सतत कार्य है करती।
कड़वी-मीठी औषध देकर व्यथा हृदयकी हरती॥
पर वह नहीं कदापि सहज ही परिचय अपना देती।
चमक तुरत चञ्चल चपला-सी दृग-‌अञ्चल ढक लेती॥
जबतक इस घूँघट वाली का मुख नहिं देखा जाता।
नाना भाँति जीव तबतक अकुञ्लाता, कष्ट उठाता॥
जिस दिन यह आवरण दूर कर दिव्य द्युति दिखलाती।
परिचय दे, पहचान बताकर शीतल करती छाती॥
उस दिनसे फिर सभी वस्तु परिपूर्ण दीखती उससे।
संसृति-हारिणि सुधा-वृष्टि हो रही निरन्तर जिससे॥
सहज दया की मूरति देवी ने जबसे अपनाया।
महिमामय मुखमण्डल अपनेकी दिखला दी छाया॥
तब से अभय हु‌आ, आकुञ्लता मिटी, प्रेम-रस छलका।
मनका उतरा भार सभी, अब हृदय हो गया हलका॥
जिन विभीषिका‌ओं से डरकर पहले था थर्राता।
उनमें भव्य दिव्य दर्शन कर अब प्रमुदित मुसकाता॥
भगवत्कृपा! ‘अकिंञ्चन’ तेरे ज्यों-ज्यों दर्शन पाता।
त्यों-ही-त्यों आनन्द-सिन्धुमें गहरा डूबा जाता॥