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प्रकृति-जगत के भोग सभी हैं / हनुमानप्रसाद पोद्दार

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(राग वागेश्री-ताल कहरवा)
 
प्रकृति-जगतके भोग सभी हैं अशुचि अपूर्ण, अनित्य, असार।
दुःखयोनि, सब भाँति शान्ति-सुख-हर, अघ-‌आकर, दोषागार॥
इनमें सुखकी आस्था-‌आकांक्षा-‌आशा करना बेकार।
किञ्तु इन्हींके मोह-जालमें फँसा कराह रहा संसार॥
जबतक नहीं हटेगा पूरा मोह-जालका विष-विस्तार।
बढ़ती नित्य रहेगी ज्वाला, मचा रहेगा हाहाकार॥
प्रभुकी प्रेम-सुधा ही कर सकती इस ज्वालासे उद्धार।
प्रेम-दिवाकरके उगते ही हो जाता तमका, संहार॥
अतः खोल दो तुरत प्रेमकी सरस सुधाका उर भंडार।
पल-पल उसे बढ़ा‌ओ, होगा दिव्य भागवत-सुख साकार॥