भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

कभी कभी खुद से बात करो / प्रदीप

Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 14:39, 10 जून 2014 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=प्रदीप |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCatKavita}} <poe...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

कभी कभी खुद से बात करो, कभी खुद से बोलो।
अपनी नज़र में तुम क्या हो? ये मन की तराजू पर तोलो।
कभी कभी खुद से बात करो।
कभी कभी खुद से बोलो।

हरदम तुम बैठे ना रहो -शौहरत की इमारत में।
कभी कभी खुद को पेश करो आत्मा की अदालत में।
केवल अपनी कीर्ति न देखो- कमियों को भी टटोलो।
कभी कभी खुद से बात करो।
कभी कभी खुद से बोलो।

दुनिया कहती कीर्ति कमा के, तुम हो बड़े सुखी।
मगर तुम्हारे आडम्बर से, हम हैं बड़े दु:खी।
कभी तो अपने श्रव्य-भवन की बंद खिड़कियाँ खोलो।
कभी कभी खुद से बात करो।
कभी कभी खुद से बोलो।

ओ नभ में उड़ने वालो, जरा धरती पर आओ।
अपनी पुरानी सरल-सादगी फिर से अपनाओ।
तुम संतो की तपोभूमि पर मत अभिमान में डालो।
अपनी नजर में तुम क्या हो? ये मन की तराजू में तोलो।
कभी कभी खुद से बात करो।
कभी कभी खुद से बोलो।